Saturday, December 07, 2019

पंच अग्नि मूल अग्नि,भुजंगम अग्नि,काल अग्नि,रुद्र अग्नि, ब्रम्ह अग्नि

🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹आइए जानते है  अग्नि कितने प्रकार के होते है ओर उनका स्थान,महत्व                      

पंच अग्नि  मूल अग्नि,भुजंगम अग्नि,काल अग्नि,रुद्र अग्नि, ब्रम्ह अग्नि

🔥(१) मूल अग्नि -
ओम् मूल अग्नि को नमो आदेश। 
मूल अग्नि का रेचक नाम 
सोखले रक्त पित्त अरू आव 
पेट पूठ दोऊ सम रहै 
ता मूल अग्नि जती गोरख कहै 
रेचक तजत विकार 
ओम् मूल अग्नि को नमो स्वाहा । 
मूल अग्नि स्वरूप अध:शक्ति अविद्याकी पहली गाँठ - ब्रम्ह ग्रंथी को खोलती है। रेचक बहिर्कुम्भक और उड्डीयान बंधसे यह मूल अग्नि प्रदीप्त होती है। उड्डीयान बंध मृत्युंजयी और चिरतारूण्यदायी है।


🔥(२) भुजंगम अग्नि -
ओम् भुजंगम अग्नि को नमो आदेश। 
भुजंगम अग्नि का भुयंगम नाम 
तजिबा भिक्षा भोजन ग्राम 
मूल की मूस अमीरस थीर 
तिसकू कहिए हों सिध्दों पवन का शरीर
पूरिको पीबत वायु कुंभको काया साधन
ओम् भुजंगम अग्नि को नमो स्वाहा। 
भुजंगम अग्नि खाली पेट रहकर अंतर्कुम्भक करनेसे प्रदीप्त होती है। मूल अग्नि की मूस से कुण्डल स्वरूप कुण्डलिनी प्राण उपर उठने पर नाभी में मणीपूर चक्र में स्थिर खडी हो उठती है । गोरक्ष पध्दति के अनुसार इडा पिंगला रूप नाड़ीयों का शिर्षच्छेद कर सुषुम्ना में रहनेवाली और त्रिविध प्राणों को धारण करनेवाली छिन्नमस्ता देवी का यहां वास्तव्य है, उसका यहां ध्यान करें।


🔥(३) काल अग्नि -
ओम् काल अग्नि को नमो आदेश। 
काल अग्नि तीनों भवन प्रवाही 
उलटंत पवना सोखंत नीर 
खाया पिया खाख होय रहै 
काल अग्नि से जती गोरख कहै 
ओम् काल अग्नि को नमो स्वाहा।। 
काल अग्नि के प्रदीप्त होनेसे भुलोक, भुवर्लोक और स्वर्ग लोक तीनों लोकों का ग्यान होता है, भुत,वर्तमान और भविष्य त्रिकाल ग्यान होता है। यहाँ कालरात्रि देवि का निवास है। गोरक्ष पध्दति अनुसार हृदयाकाशे स्थितं शंभू प्रचंड रवि तेज सम। कुण्डलिनी मणिपूर चक्र से अनाहत चक्र का वेध करती है तब काल अग्नि प्रदीप्त होती है। प्राण अपान अंतर्मुख होकर एक ही सुषुम्ना प्रवाह रहेता है। पृथ्वी, आप, तेज वायुतत्वमें विलीन होकर साधक केवल वायु, आकाश और चंद्र मंडल से स्तृत अमृत धारापर खेचरी की सहायता से क्रियाशील रहता है। यह काल अग्नि मध्य शक्ति अविद्याकी दुसरी गांठ - विष्णु ग्रंथी का भेदन करती है ।


🔥(४) रूद्र अग्नि -
ओम् रूद्र अग्नि को नमो आदेश। 
रूद्र अग्नि का त्राटिका नाम
सुखाये कंठ पेट पीठ नव ठाम
उलटंत केश पलटंत चाम 
तिसकू कहिए हों सिध्दों त्राटिका नाम 
रुद्र देव संग में खिवन्ती 
जोग जुगती कर जोगी साधन्ती 
त्राटिका आवागमन विवरजन्ती 
ओम् रूद्र अग्नि को नमो स्वाहा।। 
यह आद्न्या चक्र स्थित अग्नि है। उलटंत केश पलटंत चाम याने कायाकल्प करती है। आद्न्या चक्र पर त्राटक ध्यान करने से यह अग्नि प्रज्वलित होती है। यहाँ ज्वाला महामाई का निवास स्थान है। इससे उन्मेश निमेष वर्जित शांभवी मुद्रा प्राप्त होती है। यह रूद्र अग्नि अविद्याकी तीसरी गांठ- रूद्र ग्रंथी का भेदन करती है।


🔥(५) ब्रम्ह अग्नि -
ओम् ब्रम्ह अग्नि को नमो आदेश। 
ब्रम्ह अग्नि ब्रम्ह नाली धरिलेऊ जाणं 
उलटन्त पवना रवि शशी गगन समान 
ब्रम्ह अग्नि में सीझिबा कपूरम् 
तिसकू देखी मन जायबा दूरम् 
शिव धरि शक्ति अहेनिस रहै 
ब्रम्ह अग्नि जती गोरख कहै 
ओम् ब्रम्ह अग्नि को नमो स्वाहा।।

ब्रम्ह अग्नि का स्थान सहस्त्रार है। यहाँ ब्रम्ह अग्नि प्रज्वलित होने से गगन समान श्वेत शीतल प्रभा का दर्शन होता रहता है जिससे कर्पूरवत् शीतलता मिलती रहती है। ब्रम्ह नाली याने सुषुम्ना में स्थिर होने से ब्रम्ह अग्नि को मन स्थैर्यकर जाना जाता है । यहाँ सहस्त्रार में कुल नामक कुण्डलिनी अकुल नामक शिव से तदाकार होने से उसे शून्य स्थान कैलाश कहते हैं। यही द्वैताद्वैत विवर्जित नाथ स्थिति, जीवन मुक्ती, परमपद है। 
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