Friday, November 04, 2016

रोगों में लग्नस्थ राशि की भूमिका

रोगों में लग्नस्थ राशि की भूमिका

ज्योतिष शास्त्र के अनुसार लग्न कुण्डली के प्रथम भाव के नाम आत्मा, शरीर, होरा, देह, कल्प, मूर्ति, अंग, उदय, केन्द्र, कण्टक और चतुष्टय है। इस भाव से रूप, जातिजा आयु, सुख-दुख, विवेक, शील, स्वभाव आदि बातों का अध्ययन किया जाता है। लग्न भाव में मिथुन, कन्या, तुला व कुम्भ राशियाँ बलवान मानी जाती हैं। इसी प्रकार षष्ठम भाव का नाम आपोक्लिम, उपचय, त्रिक, रिपु, शत्रु, क्षत, वैरी, रोग, द्वेष और नष्ट है तथा इस भाव से रोग, शत्रु, चिन्ता, शंका, जमींदारी, मामा की स्थिति आदि बातों का अध्ययन किया जाता है। प्रथम भाव के कारक ग्रह सूर्य व छठे भाव के कारक ग्रह शनि और मंगल हैं। जैसा कि स्पष्ट है कि देह निर्धारण में प्रथम भाव ही महत्वपूर्ण है ओर शारीरिक गठन, विकास व रोगों का पता लगाने के लिए लग्न, इसमें स्थित राशि, इन्हें देखने वाले ग्रहों की स्थिति का महत्वपूर्ण योगदान होता है। इसके अलावा सूर्य व चन्द्रमा की स्थिति तथा कुण्डली के 6, 8 व 12वां भाव भी स्वास्थ्य के बारे में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। लग्न में स्थित राशि व इनसे संबंधित ग्रह किस प्रकार व किस अंग को पी़डा प्रदान करते हैं, आइए अब इसके बारे में जानते हैं-
1. मेष राशि :- इस राशि का स्वामी मंगल है। यह सिर या मस्तिष्क की कारक है और इसके कारक ग्रह मंगल और गुरू हैं। मकर राशि में 28 अंश पर मंगल उच्चा के होते हैं तथा कर्क राशि में नीच के होते हैं। मंगल वीर, योद्धा, खूनी स्वभाव और लाल रंग के हैं। अगिA तत्व व पुरूष प्रधान तथा क्षत्रिय गुणों से युक्त है। यह राशि मस्तिष्क, मेरूदण्ड तथा शरीर की आंतरिक तंत्रिकाओं पर विपरीत प्रभाव डालती है। लग्न में यह राशि स्थित हो तथा मंगल नीच के हो या बुरे ग्रहों की इस पर दृष्टि हो तो ऎसा जातक उच्चा रक्तचाप का रोगी होगा। आजीवन छोटी-मोटी चोटों का सामना करता रहेगा। सीने में दर्द की शिकायत रहती है और ऎसे जातक के मन में हमेशा इस बात की शंका रहती है कि मुझे कोई जहरीला जानवर ना काट ले। परिणाम यह होता है कि ऎसे जातक का आत्म विश्वास कमजोर हो जाता है और उसकी शारीरिक शक्ति क्षीण हो जाती है जो अनावश्यक रूप से विविध ्रप्रकार की मानसिक बीमारियों का कारण होती है।
2. वृषभ राशि :- इस राशि का स्वामी शुक्र है। यह मुख की कारक राशि है व लग्न में स्थित होने पर इसके कारक ग्रह शुक्र, बुध और शनि होते हैं। शुक्र 27 अंश पर मीन में उच्चा के तथा कन्या राशि में नीच के होते हैं(परम उच्चाांश व परम नीचांश)। शुक्र ग्रह कलात्मक गुणों से भरपूर, रसिक व आशिक मिजाज, रंग सफेद तथा भूमि व वायु से युक्त है। वृषभ राशि लग्न में स्थित हो, शुक्र या कारक ग्रह नीच के हो तो जातक हमेशा नियमों के खिलाफ चलने वाला होता है। ऎसे जातक को मुख संबंधी बीमारी छाले, तुतलाकर बोलना आदि की शिकायत रहती है तथा जातक की संतान को आजीवन बुरे स्वास्थ्य का सामना करना प़डता है।
3. मिथुन राशि :- मिथुन राशि का स्वामी बुध है। यह वक्ष, छाती, भुजाएं व श्वास नली की कारक है। लग्न मेे स्थित होने पर इसके कारक ग्रह शुक्र, बुध व चन्द्रमा होते हैं। बुध के परमोच्चाांश व परम नीचांश 15 होते हैं जो कन्या राशि में उच्चा के तथा मीन राशि में नीच के होते हैं। बुध ग्रह को नपुंसक, स्त्री तत्व युक्त, राजकुमार आदि की संज्ञा दी गई है। रंग हरा व इसमें पृथ्वी व वायु तत्व मौजूद है। इसकी वणिक वृत्ति रहती है। यदि बुध कुण्डली में नीच का हो या अन्य क्रूर ग्रहों से पीç़डत हो तो जातक फेफ़डों से संबंधित रोग जैसे टी.बी., श्वास नली में खराबी, वायु प्रकोप (गैस व अपच), जी घबराना, हाथ व माँस पेशियों पर विपरीत प्रभाव प़्ाडता है।
4. कर्क राशि :-कर्क राशि का स्वामी चन्द्रमा है। यह राशि ह्वदय की कारक है। इस राशि के लग्न में स्थित होने पर इसके कारक ग्रह चन्द्रमा और मंगल होते हैं। 3 अंश पर वृषभ राशि में चन्द्रमा उच्च् के तथा वृश्चिक राशि मेंं परम नीच के माने जाते हैं। चन्द्रमा सौम्य ग्रह है। जल तत्व, सफेद रंग, स्त्री प्रधान तथा ब्राrाण व वैश्य के गुण इनमें मौजूद हैं। यदि कुण्डली के लग्न में र्क राशि हो व चन्द्रमा नीच के या पीç़डत हो तो जातक की त्वचा व पाचन संस्थान पर विपरीत प्रभाव रहता है एवं जातक में आत्म विश्वास की कमी रहती है। मानसिक अवसाद, कुण्ठा व जातक कमजोर दिल का होता है। ऎसे जातक की संतान भी नीच विचारों की होती है।
5. सिंह राशि :-सिंह राशि का स्वामी सूर्य है जो नक्षत्र-मण्डल का स्वामी है। यह राशि गर्भ व पेट की कारक है। इस राशि के लग्न में स्थित होने पर इसके कारक ग्रह सूर्य और मंगल होते हैं। 10 अंश पर मेष राशि में ये परम उच्च के तथा तुला राशि में परम नीच के होते हैं। सूर्य उग्र स्वभाव के, अगिA तत्व तथा इनका रंग हल्का लाल व पीला है। यदि कुण्डली के लग्न में सिंह राशि है तथा यह या सूर्य नीच के हो या अन्यथा किसी प्रकार पीç़डत हो तो शरीर में रक्त संचार एवं जीवनी शक्ति प्रभावित होती है। जातक को ह्वदयाघात, हडि्डयों की बीमारी व नेत्र रोगों से ग्रसित हो सकता है। ऎसा जातक अपने लक्ष्यों से भटक जाता है तथा नीच कर्मरत रहता है।
6. कन्या राशि :- न्या राशि के स्वामी बुध है तथा यह पेट व कमर के कारक हैं। इस राशि के लग्न में स्थित होने पर इसके कारक ग्रह बुध तथा शुक्र होते हैं। नीच का या अन्यथा बुध पीç़डत होने पर पेट, पाचन क्रियाएं, यकृत संबंधित रोग व शुक्र के प्रभाव या संयोग के कारण गुप्त रोगों का व किडनी, गुदा से संबंधित रोग जातक को प्रदान करता है।
7. तुला राशि :-तुला राशि के स्वामी शुक्र हैं तथा यह राशि मृत्राशय की कारक है। लग्न में यह राशि स्थित होने पर इसके कारक ग्रह शुक्र, शनि व बुध होते हैं एवं स्वामी के किसी भी प्रकार से पीç़डत होने पर या नीच का होने पर यह जातक को जननांग व मूत्राशय संबंधित रोगों से पीç़डत रखता है। महिलाओं के मासिक धर्म व गर्भ धारण संबंधी क्रिया भी इसी के कारण प्रभावित होती है।
8. वृश्चिक राशि :-वृश्चिक राशि के स्वामी मंगल हैं। यह राशि गुप्तांगों (लिंग व गुदा) की कारक है। लग्न में स्थित होने पर इसके कारक ग्रह मंगल, गुरू व चंद्रमा होते हैं। इस राशि के लग्न में स्थित होने पर व राशि स्वामी के पीç़डत होने पर या नीच में स्थित होने पर या मंगल बद होने पर गुदा, लिंग, जननांग, यकृत, मस्तिष्क संबंधी व आंतों की बीमारियों से जातक को ग्रसित करती हैं।
9. धनु राशि :-धनु राशि के स्वामी देवगुरू बृहस्पति हैं। यह राशि जांघों व नितम्ब की कारक है। गुरू पुरूष प्रधान, शांत व मौन प्रकृति के, रंग पीला तथा इनमें जल व अगिA दोनों तत्व मौजूद है। लग्न में स्थित होने पर इस राशि के कारक ग्रह गुरू व चन्द्रमा होते हैं। 5 अंश पर कर्क में परमोच्चा व मकर राशि में परम नीच के होते हैं। नीचस्थ व पीç़डत गुरू जातक को लीवर, ह्वदय, आंत, जंघा, कूल्हे व बवासीर रोगों से ग्रसित रखते हैं।
10. मकर राशि :-मकर राशि के स्वामी शनि है। यह राशि घुटनों की कारक है। शनि क्रूर ग्रह है। इसका रंग काला तथा इसमें वायु व पृथ्वी तत्व मौजूद है। शनि 20 अंश पर तुला राशि में परमोच्चा व मेष राशि में परम नीच के होते हैं। लग्न में मकर राशि स्थित होने पर इसके कारक ग्रह शनि, शुक्र व बुध होते हैं। शनि नीचस्थ या पीç़डत होने पर जातक को घुटनों, जांघ, कफ व पाचन तंत्र संबंधी बीमारियों से ग्रसित रखता है। इसके अलावा पुरानी बीमारी यदि कोई है तो उस पर भी इसी राशि का प्रभाव रहता है।
11. कुम्भ राशि :-कुम्भ राशि के स्वामी भी शनि है। यह राशि पिण्डलियों की कारक है। कुम्भ राशि लग्न में स्थित होने पर इसके कारक ग्रह गुरू, शुक्र व शनि होते हैं। शनि के पीç़डत या नीचस्थ होने पर व इस राशि के पीç़डत होने पर जातक पिण्डलियों, उच्च रक्तचाप, हर्निया व कई प्रकार की अन्य बीमारियों से ग्रसित रहता है क्योंकि ऎसा जातक खराब आदतों वाला व किसी भी प्रकार के नशे का आदि होता है जिसके परिणामस्वरूप वह कई प्रकार की व्याधियां पाल लेता है।
12. मीन :- न राशि का स्वामी देवगुरू बृहस्पति होते हैं। यह राशि पैर के पंजों की कारक है। लग्न में मीन राशि स्थित होने पर इसके कारक ग्रह सूर्य, मंगल व गुरू होते हैं। राशि स्वामी के पीç़डत या नीचस्थ होने पर जातक लीवर, पंजों, तंत्रिका से संबंधी बीमारी व घुटनों संबंधी परेशानी जातक को रहती है। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि कुण्डली में रोगों का अध्ययन करते समय उक्त तथ्यों को ध्यान में रखते हुए व ग्रहों की युति, प्रकृति, दृष्टि, उनका परमोच्चा या परम नीच की स्थिति का गहन अध्ययन कर ही किसी निर्णय पर पहुंचना चाहिए।

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